गुरुओं का मान-सम्मान कहीं खो गया है ।

गुरुओं का मान-सम्मान,

कहीं खो गया है ।

गुरु तो बचपन से ही मिल जाती,

माँ के रूप में, उसके लिए

अब समय और ध्यान खो गया है ।

ना जाने कितने गुरु मिलते उम्र बढ़ते-बढ़ते,

जो दे जाते हमें बातों-बातों में,

जीवन की सीख,

भागती ज़िंदगी में व्यस्त इतने  हम,

बस औपचारिकता मात्र शेष!

क्या उनका हृदय पर से,

निशान खो गया है ??

हर रूप, हर स्थिति में भूल खुद को,

 वह बेतहाशा कोशिशों से तराशता,

कितने ही चरित्र,

भरता रंग बेरंग जीवन में,

संवारता ज्यों,

कच्ची मिट्टी से मूर्तिकार,

थपेड़े देता स्नेह के,

खुद के हाथ सने न देखता कभी,

देखता अपनी बनी मूर्ति को बस एकटक ।

दो पैसे कमाता पर चुपचाप,

ताकता स्नेह को अपलक,

भीतर से इस चाह में,

दिल उसका  अब रो गया है ।

अब 

गुरुओं का मान-सम्मान,

कहीं खो गया है......

भावना ‘मिलन’ अरोड़ा

लेखिका एवं शिक्षिका

कालकाजी,नई दिल्ली

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