लघुकथा : बेशकीमती

माँ सारा काम निपटा चुकी थी। दालान से लेकर

सारे घर आंगन की झारा-बटोरी, हर छोटा-बड़ा काम जाड़ा हो या भीषण ताप, उन्हें तड़के उठ

सब सर्राटे से समेटना पसंद था । 

बात-बात पर मुँह फुलाने,नखरे दिखाने वाले, बहिसयाने ना-नुकुर करने वाले हम नटखट, हमें पता ही न चला कि कब हम बड़े हुए,ब्याहे गए । मानो निश्चिंत निद्रा के सुकून से किसी ने झकझोर कर उठा दिया हो ।

एक लंबी-गहरी सोच में डूबी हुई नेहा बेसुध, खिड़की से दूर आसमान को निहार रही थी तभी पीछे से आवाज आई -'माँ कुछ खाने का दे दो न ।'

भावना 'मिलन'

अध्यापिका, लेखिका, मोटिवेशनल स्पीकर



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